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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 74

महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा शुक्राचार्य और देवयानी के पास चलने की तैयारी करने लगे । इतने में गुप्तचर विभाग का प्रमुख "महामात्यासर्प" दौड़े दौड़े आये और महाराज को एकांत में ले जाकर कहने लगे "महाअनर्थ हो गया महाराज ! पता नहीं किस बात पर कुपित होकर आचार्य शुक्र अपनी पुत्री देवयानी को लेकर अपने आश्रम से निकल गये हैं और वे एक अति दुर्गम रास्ते की ओर चले गये हैं" । महामात्यासर्प के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं ।

महामात्यासर्प की बातों से महाराज वृषपर्वा को बहुत दुख हुआ । यदि शुक्राचार्य आश्रम पर होते तो उन्हें मनाना आसान होता । अब तो शुक्राचार्य को मनाना और भी कठिन हो जायेगा । अब वे अपनी शर्तों पर ही वापस आश्रम में लौटेंगे । अब तो चलकर उन्हें मनाना ही पड़ेगा अन्यथा दैत्य साम्राज्य बच नहीं पायेगा । चिंतित होते हुए महाराज ने पूछा "आचार्य को दुर्गम मार्ग की ओर जाते हुए किसी ने देखा था क्या" ? "हां महाराज, एक कापटिक (छात्र वेश में एक गुप्तचर) ने यह सूचना दी है । उसने स्वयं अपनी आंखों से उन दोनों को उधर जाते हुए देखा है" ।

इस सूचना को सुनकर महाराज ने अपने सेवक को आदेश दिया "तुरंत रथ लेकर आओ" ।

आदेश देने के साथ ही रथ आ गया । महाराज वृषपर्वा ने महारानी प्रियंवदा को हाथ पकड़कर रथ पर चढ़ाया और स्वयं भी रथ पर आरूढ हो गये । रथ पवन वेग से दुर्गम रास्ते की ओर बढ़ने लगा । थोड़ी ही दूरी पर उन्हें शुक्राचार्य और देवयानी पहाड़ों की ओर जाते हुए दिखाई दे गये । महाराज ने रथ वहीं रुकवा दिया और महारानी प्रियंवदा का हाथ पकड़कर उन्हें रथ से नीचे उतारा । वे दोनों पैदल ही शुक्राचार्य की ओर चल पड़े ।

देवयानी ने महाराज और महारानी को अपनी ओर आते हुए देख लिया था । उन्हें देखकर देवयानी के कदम अचानक ठिठक गये । देवयानी ने शुक्राचार्य से कहा "तात् ! महाराज और महारानी इधर ही आ रहे हैं" । देवयानी की बात सुनकर शुक्राचार्य के मन को तसल्ली मिली । जो वे चाहते थे, वह हो रहा था । उन्होंने देवयानी को समझाते हुए कहा "देव ! उनकी ओर मत देखो । उनसे थोड़ी दूरी बनाने के लिए चेहरे पर खिन्नता के भाव लाओ और आगे बढती जाओ । समझ गई ना" ? शुक्राचार्य उसे पाठ पढ़ाते हुए कहने लगे ।

शुक्राचार्य और देवयानी को आगे बढ़ते हुए देखकर महाराज और महारानी ने अपनी गति तीव्र कर दी थी किन्तु दूरी अभी भी बनी हुई थी । महाराज ने पुकार कर कहा "रुकिये आचार्य ! हमें अनाथ करके कहां जा रहे हैं" ?

शुक्राचार्य ने महाराज की आवाज सुन ली थी किन्तु उसे अनसुना करते हुए वे आगे बढते रहे । देवयानी उनके पीछे पीछे चल रही थी । महाराज ने प्रियंवदा से कहा "लगता है कि शुक्राचार्य बहुत आवेश में हैं इसलिए वे मेरी आवाज सुनकर भी अनसुना कर रहे हैं । आप अपनी गति बढ़ाइए महारानी जिससे उन्हें शीघ्र रोका जा सके । वे हमसे जितना दूर होते जायेंगे, उतना ही शर्मिष्ठा के प्रति कठोर होते जायेंगे । हमें आगे बढ़कर उन्हें रोकना होगा" । "जी प्राणेश्वर" । कहते हुए महारानी प्रियंवदा महाराज के साथ कदमताल करने लगी । थोड़ी ही दूरी पर जाकर उन्होंने शुक्राचार्य और देवयानी का रास्ता रोक लिया और महाराज तथा महारानी दोनों शुक्राचार्य के चरणों में लेट गये ।

महाराज और महारानी को अपने चरणों में दंडवत लेटे देखकर शुक्राचार्य थोड़े पिघले और कहने लगे "ये क्या अनर्थ कर रहे हैं दैत्यराज ! ऐसा करके मुझे पाप का भागी न बनाइये । आप दैत्यों के महाराज हैं । दैत्य वंश के आप कुलदीपक हैं । आपका इस तरह मेरे चरणों में लेटना शोभा नहीं देता है" । शुक्राचार्य उन्हें उठाने का प्रयास करते हुए बोले "मैं केवल आपका शिष्य हूं महाराज , इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । आप मेरे गुरू हैं । आपके चरणों में बैठने और लेटने का मेरा अधिकार है । इस अधिकार से मुझे वंचित नहीं करें गुरूदेव" । कहते कहते महाराज ने शुक्राचार्य के दोनों चरण पकड़ लिये ।

महाराज की बातों से शुक्राचार्य थोड़ा और द्रवित हुए । वे वहीं भूमि पर बैठ गये । महाराज और महारानी भी उनके समीप वहीं भूमि पर बैठ गये । दोनों हाथ जोड़कर महाराज कहने लगे "मुझ अधम से क्या अपराध हुआ है गुरूदेव जो आपने इस तरह बिना बताये मेरा परित्याग कर दिया है । आप तो सर्वज्ञ हैं , धर्म की गूढ बातें जानते हैं । आप तो नीतिशास्त्र के अधिष्ठाता हैं । आपने न्याय संहिता को हृदयांगम कर रखा है । इसमें स्पष्ट रूप से वर्णित है कि अपराधी को बिना सुने कोई दंड नहीं दिया जाना चाहिए । परन्तु आपने मुझे सुने बिना ही दंड निश्चित कर दिया । यहां तक कि आप तो इससे भी दो कदम और आगे बढ़ गये और मुझ पतित को अपना अपराध तक नहीं बताया आपने । मेरा परित्याग कर मुझे "अनाथ" बनाकर इतना भारी दंड देकर आप यहां से जा रहे हैं । क्या यह उचित है भगवन्" ? महाराज वृषपर्वा ने शुक्राचार्य के दोनों पैर पकड़ लिये और उनकी आंखों से अविरल अश्रु बहने लगे । ये गर्म गर्म अश्रु शुक्राचार्य के पैर भिगो रहे थे ।

आंसुओं में बहुत शक्ति होती है । आंसुओं की दो बूंद बड़े बड़े पर्वतों को भी पिघला देती है । इन आंसुओं से शुक्राचार्य का कठोर हृदय भी पिघलने लगा । वे बोले "राजन ! जिस राज्य में महाराज के गुरू की पुत्री का वध करने का प्रयास हो तो क्या वहां ठहरना उचित है ? यह तो ईश्वरीय वरदान था कि देव सकुशल लौट कर आ गई अन्यथा उसकी मृत्यु होने में तनिक भी संदेह नहीं था । क्या तुम्हें यह तथ्य ज्ञात नहीं है" ? शुक्राचार्य के चेहरे पर पुन: आक्रोश की चिंगारियां चमकने लगीं । "मैं निर्दोष हूं आचार्य ! मुझे इस संबंध में कुछ ज्ञात नहीं है । मुझे तो अभी अभी गुप्तचर विभाग के प्रमुख महामात्यासर्प ने आपके जाने की सूचना दी तो में महारानी को लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हो गया । क्या घटना घटी थी गुरूदेव" ? महाराज वृषपर्वा ने संपूर्ण घटनाक्रम शुक्राचार्य से सुनने की इच्छा से ऐसा कहा ।

"एक बात याद रखना राजन ! जिस राज्य का गुप्तचर विभाग अनुत्तरदायी, लापरवाह, अयोग्य और अप्रभावी हो जाये, उस राज्य का पतन निश्चित है । इतनी बड़ी घटना की सूचना यदि महामात्यासर्प ने आपको नहीं दी है तो वह इस पद के न केवल अयोग्य है अपितु वह दंड का पात्र भी है । अपनी गुप्तचर व्यवस्था को सक्रिय , गतिशील और स्फूर्त बनाइए राजन जिससे आपको छोटी से छोटी सूचना भी प्राप्त हो सके" । शुक्राचार्य ने तनिक खिन्न होकर कहा ।

"क्षमा करें तात् ! महामात्यासर्प को इस धृष्टता के लिए अवश्य ही दंड मिलेगा । अब तो आप मुझे अवगत करवाने की कृपा करें कि आखिर हुआ क्या था" ?

शुक्राचार्य कहने लगे "राजकुमारी शर्मिष्ठा ने मयदानव द्वारा निर्मित देवताल में जल क्रीड़ा हेतु समस्त सखियों को आमंत्रित किया था । उसमें देवयानी भी थी । शर्मिष्ठा ने जानबूझकर देवयानी के वस्त्र पहन लिये । देवयानी ने बहुत ही विनम्रता से शर्मिष्ठा का ध्यान इस ओर आकृष्ट करवाया तो शर्मिष्ठा ने क्षमायाचना करने की अपेक्षा देव को अपशब्द कहना प्रारंभ कर दिया । अपशब्द कहने से भी उसके हृदय की ज्वाला शांत नहीं हुई तो उसने देव के साथ हाथापाई प्रारंभ कर दी । देव के वस्त्र विदीर्ण कर दिये और उसे एक कुंए में धक्का देकर भाग गई । अब आप ही बताइए राजन , कार्तिक माह की पूर्णिमा पर जल बहुत शीतल रहता है । शीतल जल में तैरना कितना मुश्किल होता है ये आप भी अच्छी तरह से जानते हैं । वो तो भगवान भोलेनाथ ने "देव" पर कृपा कर दी और सम्राट ययाति को उसकी सहायता करने के लिए वहां सघन वन में प्रेषित कर दिया जिससे वह जीवित बच सकी । अपने प्रण दांव पर लगाकर कोई कैसे रह सकता है राजन" ?

शुक्राचार्य ने अपनी ओर से संपूर्ण घटना का वर्णन कर दिया । महाराज वृषपर्वा ने समझ लिया कि आचार्य को देवयानी ने कुछ बातें बिल्कुल असत्य कह थीं लेकिन ये सब कहने का साहस वृषपर्वा में नहीं था । "शर्मिष्ठा के इस घोर अनुचित कृत्य के लिए मैं लज्जित हूं आचार्य और मैं उसकी ओर से क्षमायाचना करता हूं । आप तो विशाल हृदय के स्वामी हैं । शर्मिष्ठा के गुरू हैं, पिता सदृश हैं । एक पिता अपने बालकों की त्रुटियों को कभी दिल से नहीं लगाते हैं इसलिए आप भी मत लगाइये और उसके साथ हम सभी लोगों को क्षमा कीजिए" । महाराज की आंखें पुन: बरसने लगीं ।

श्री हरि 19.8.23

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